कैसे खेलु मैं होली किसके संग खेलु होली ? कौनसे रंगों से खेलु मैं होली ?
फिर
होली का त्यौहार सामने नज़र आने लगा है . मन है कि मान ही नहीं रहा है .
जरा भी इच्छा नहीं है किसी को बदरंग करने की और होगा भी कैसे आम इन्सान भला
कैसे किसी को बदरंग कर सकता है वो तो खुद बदरंग होने को बना है . पहले से
ही कई रंगों से बदरंग है. महंगाई के रंग ने त्यौहार पर अपनी अमिट छाप
छोड़ ही रखी है. अब कहा वो वेरायटी वाले पकवानों की खुशबु। एक दो आइटम से
रंग जमाना पड़ता है.
हाँ, भ्रस्टाचार के रंग के ऊपर कोई और रंग चढ़ा है
भला. आये दिन भ्रस्टाचार की बौछारो के आगे अपनी पिचकारी भला कहाँ
टिकेगी ? भ्रस्टाचारियों की पिचकारी की मार आम आदमी को पड़ती है, जनता
का रंग भ्रस्टाचार की पिचकारी की मार से कैसे अछूत रह सकता है भला .
समझ में आज तक नहीं आया कि श्वेत वस्त्र धारियों पर आज
तक राष्ट्र रंग क्यों न चढ़ा ? श्वेत वस्त्रो की चमक भ्रस्टाचार के रंग से
और खिल उठती है चेहरी की चमक तो फीकी होने का सवाल ही नही .
कौनसे मैदान में यह खेल रहे है देश से होली आज तक समझ नहीं पाया
हूँ मैं ? इस चिंता से ही शायद मेरा फीका रंग आज भी कायम है. मगर इन नेताओ
को भल्ला मेरी या फिर मेरी जनता की तनिक भी चिंता है ? देश का या फिर जनता
का रंग भले ही उड़ा रहे बस इनका रंग नहीं उड़ना चाहिए .
राष्ट्र की संप्रभुता के लिए अपना सिर न्योछावर कर दे
उस के यहाँ होली के रंग के गुबार नहीं होंगे तो क्या हुआ ?
श्वेत वस्त्र धारियों के यहाँ तो होली का मजमा लगेगा ही, चंग पर थाप
लगेगी ढोलक पर ठुमका लगेगा भंग छनेगी . जनता का क्या उसके रंग की किसको
चिंता ?
दामिनी आन्दोलन का रंग भी अब उड़ने लगा है। श्वेत
वस्त्रधारियों के पास तो रंगों का खजाना है। इक रंग से जरा बदरंग होने का
भय लगता है तो दूसरा रंग तैयार है . भला हो भगवन का की १६ की बजाय १८ की सध्बुधी का रंग जम गया। वर्ना बचपन के बदरंग होने का पूरा इंतजाम इन्होने कर ही रखा था .
समय जब आएगा चुनावो का तब उस रंग में रंग जायेंगे
आश्वासनों की पिचकारी की बौछारो से फिर वोटर को सराबोर कर देंगे . भोला
भाला वोटर आश्वानो की बौछारो की मार से फिर मारा जायेगा। यह होली चली
जाएगी और फिर एक वर्ष बाद सपनों के नए रंगों को लेकर आएगी।